कुछ साल पहले
शायद इमर्जेंसी के समय
मेरे पापा कुछ १५ साल के रहे होंगे
तब उनके एक दोस्त ने उन्हें एक कविता पढ़ने को दी
ओम प्रकाश वाल्मीकि की
मगर जैसे ही दादा ने देखा उन्होंने वह फट से छीन ली
और कूड़े में फेंक दी
और कहा यह सब मत पढ़ा कर
चल रामायण पढ़
उसमें भी तो राम शबरी के झूठे जामुन खाते हैं
देख कितने निष्पक्ष हैं वो
खैर वो कविता एक कूड़ा बिनने वाले को मिली
वो भी करीब करीब मेरे पापा जितना ही था
उस बच्चे को एक भला आदमी
शायद बुद्ध का अनुयायी
रात को पढ़ाता था
उस बच्चे ने यह कविता को अपने घर की दीवार पर लगा लिया
ना जाने कितने घर टूटे,
कितने जले
कितनी बार उसने रिजर्वेशन की लड़ाईयों में
इसे पढ़ा
अंधी सरकारें और अंधी होती गई
गूंगे बहरे लोगों ने अपने दोनों कान
नोटों की गड्डी से भर लिए
मगर सब लड़ाइयों में उसका एक ही हथियार था
वह कविता
एक दिन ऐसा आया
की वो बच्चा एक प्रोफेसर बना
और मैं उनसे पढ़ने गया
उन्होंने कहा रामायण भी पढ़ो
ओम प्रकाश वाल्मीकि भी
दोनों में जो अच्छी सीख है वो लो
और सवाल करते रहो
वह नेता जिन्हें तुम राम का स्वरूप मानते हो
दलितों के घर खाना खाकर,
अख़बार के लिए फोटो खिंचाकर
खुदपर गंगाजल क्यों छिड़कता है?